स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से प्रेरणा लेकर के समाज व राष्टीय हित मैं सेवा कार्य करना, एवं स्वामी जी के विचारों को जन जन तक पहुँचाना ही हमारा उद्देश्य है.
एक बार एक सज्जन स्वामीविवेकानंद जी के पास आए और कहने लगे, ‘‘महाराज, मुझे बचाईए, मेरे दुर्गुणोंके कारण मेरा जीवन नरक के समान हो गया है । भले ही कितने भी प्रयास करो; परंतु बुरी आदतें छूट नहीं रही हैं । इसपर मुझे कुछ उपाय बताइए ।’’
ऐसी विनती कर वे सज्जन रोने लगे । इसपर विवेकानंदजी ने उनसे कुछ नहीं कहा । अपने एक शिष्य को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा । कुछ समय के उपरांत उन्हें लेकर वे एक बगीचे में घुमने गए । मार्ग में क्या देखते ? एक शिष्य वृक्ष के तने को बाहो में पकडकर बैठा है और बार-बार कह रहा है, ‘मुझे छोड दो, मुझे छोड दो’ । ऐसा कहते हुए वह वृक्ष को लातें मार रहा था । यह देखकर वे सज्जन हंसने लगे और कह पडे, ‘‘महाराज, क्या मूर्ख मनुष्य है ! स्वयं ही वृक्ष को पकडा हुआ है और उपर से कह रहा है की ‘मुझे छोड दो, मुझे छोड दो’ । मुझे तो यह पागल ही लगता है ।’’
विवेकानंद हंसे और कहने लगे, ‘‘क्या आपको नहीं लगता की आपकी स्थिती भी ऐसी ही है ? दुर्गुणों को आपने ही पकडकर रखा है और वे छूट नहीं रहे है इसलिए चिल्ला रहे है ।’’ उनकी यह बात सुनकर वे सज्जन थोडे से सहम गए । कुछ आगे बढने के पश्चात उन्हें एक माली पौधों को खाद डालते हुए दिखाई दिया । खाद को दुर्गंध आ रही थी । सज्जन ने नाक को रूमाल लगा दी । विवेकानंदजी हंसे । कुछ पग आगे बढे । अनेक विध पौधों पर विभिन्न प्रकारके पुष्प खिले थे । उनकी सुगंध सर्व ओर फैल रही थी । वे सज्जन मन भरकर सुगंध लेने लगे । उनका मन प्रफुल्लित हुआ । विवेकानंद अभी तक स्मितहास्य कर रहे थे । वे सज्जन अचरज में पड गए । उनके मनमें विचार आया, ‘ये पागल तो नहीं है न ? मैं कितनी बडी समस्या लेकर इनके पास आया हूं और ये तो हंस रहे है । मेरा उपहास तो नहीं उडा रहे है न ?’ अंत में उन्होंने विवेकानंदजीसे पूछा, ‘‘महाराज, आप क्यो हंस रहे है ? क्या मुझसे कुछ चूक हुई है ?’’ स्वामी विवेकानंदने बताया, ‘‘ये पौधे, फूल मानव की दृष्टि से कितने अप्रगत और पिछडे हुए है; परंतु वे प्राप्त खाद की दुर्गंध को सुगंध में परिवर्तित करते हैं! वे सभी को सुगंध बांटते है, अपने लिए कुछ नहीं रखते । परंतु इतनी प्रगल्भ बुद्धिका विकसित मनुष्य मात्र अपने दुर्गुणों को सद्गुणों में परिवर्तित नहीं कर पाता । ये फूल किसी भी परिस्थिति में हिल-डुलते हैं, हंसते हैं । उन्हें तोडने पर भी वह सुगंध ही देते है । सुगंध बांटना यह गुणधर्म वे कभी नहीं छोडते । परंतु मनुष्य जरा से हवा के झोके से दोलायमान होता है ।’’ यह सुनकर वे सज्जन सहम गए । उन्हें अपनी चूक समझ में आई । वे संतुष्ट होकर वहां से गए यदि आप भी आपके दुर्गुण नष्ट करना चाहते हो, तो जिस प्रकार उस मनुष्य को स्वयं ही वृक्षको छोडना आवश्यक था, उस प्रकार हमें भी अपने दुर्गुण स्वयं ही छोडने आवश्यक हैं । भगवानजी के नाम स्मरण से हमारी प्रवृत्ति में अंतरबाह्य परिवर्तन होता है । विवेकानंदजी के दिखाये अनुसार हम भी उन सुगंध देने वाले फूलों की भांति अपने दुर्गुणों को सद्गुणों में परिवर्तित कर सकते है । स्वामी विवेकानंद ने स्वयं साधना की थी । इसीलिए वे उस सज्जनकी व्यथा को दूर कर सके । अपनी प्रखर साधना के बलपर ही मुरझे हुए समाज को मार्ग दिखा सके । आज भी कन्याकुमारी में विराजित स्वामी विवेकानंद जी का स्मारक उनके तेजमयी व्यक्तित्व की स्मरण करवाता है
भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति से ठीक ५० वर्ष पूर्व मद्रास के युवाओं के सम्मूख दिये व्याख्यान में स्वामीजी ने यह विश्वास व्यक्त किया था। स्वामी विवेकानन्द स्वयं युवा ही थे। उनका सारा जीवन व संदेश यौवन का आदर्श था। उन्होंने भारतीय संस्कृति में युवावस्था के आदर्श को हमारे सम्मूख प्रस्तुत किया। केवल ३९ वर्ष ५ माह व २२ दिन की अल्पआयु में ऐसा पराक्रम किया कि सारा विश्व स्तम्भित रहा। अपने जीवन, प्रेरणा, विचार, साहित्य तथा कर्तृत्व से स्वामीजी ने तरुणाई को परिभाषित व प्रेरित किया।
स्वामीजी के जीवन ने अनेक महापéरूषों के जीवन को प्रभावित किया। आज भी उनका साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में भाव जगाता है। किसी ने ठीक ही कहा है - यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो सहज ही कर्ममें लग जायेगा। अपने ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। यह स्वामी विवेकानन्द के सजीव संदेश का प्रभाव है। जो भी उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में आया उसका जीवन ही बदल गया। वर्तमान समय में युवाओं के सम्मूख अनेक चुनौतियाँ हैं। ऐसे में स्वामीजी का संदेश उनके लिये अत्यन्त व्यावहारिक मार्गÎर्शन प्रदान करता है।
भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति से ठीक ५० वर्ष पूर्व मद्रास के युवाओं के सम्मूख दिये व्याख्यान में स्वामीजी ने यह विश्वास व्यक्त किया था। स्वामी विवेकानन्द स्वयं युवा ही थे। उनका सारा जीवन व संदेश यौवन का आदर्श था। उन्होंने भारतीय संस्कृति में युवावस्था के आदर्श को हमारे सम्मूख प्रस्तुत किया। केवल ३९ वर्ष ५ माह व २२ दिन की अल्पआयु में ऐसा पराक्रम किया कि सारा विश्व स्तम्भित रहा। अपने जीवन, प्रेरणा, विचार, साहित्य तथा कर्तृत्व से स्वामीजी ने तरुणाई को परिभाषित व प्रेरित किया।
स्वामीजी के जीवन ने अनेक महापéरूषों के जीवन को प्रभावित किया। आज भी उनका साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में भाव जगाता है। किसी ने ठीक ही कहा है - यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो सहज ही कर्ममें लग जायेगा। अपने ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। यह स्वामी विवेकानन्द के सजीव संदेश का प्रभाव है। जो भी उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में आया उसका जीवन ही बदल गया। वर्तमान समय में युवाओं के सम्मूख अनेक चुनौतियाँ हैं। ऐसे में स्वामीजी का संदेश उनके लिये अत्यन्त व्यावहारिक मार्गÎर्शन प्रदान करता है।
एक बार एक सज्जन स्वामीविवेकानंद जी के पास आए और कहने लगे, ‘‘महाराज, मुझे बचाईए, मेरे दुर्गुणोंके कारण मेरा जीवन नरक के समान हो गया है । भले ही कितने भी प्रयास करो; परंतु बुरी आदतें छूट नहीं रही हैं । इसपर मुझे कुछ उपाय बताइए ।’’
ReplyDeleteऐसी विनती कर वे सज्जन रोने लगे । इसपर विवेकानंदजी ने उनसे कुछ नहीं कहा । अपने एक शिष्य को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा । कुछ समय के उपरांत उन्हें लेकर वे एक बगीचे में घुमने गए । मार्ग में क्या देखते ? एक शिष्य वृक्ष के तने को बाहो में पकडकर बैठा है और बार-बार कह रहा है, ‘मुझे छोड दो, मुझे छोड दो’ । ऐसा कहते हुए वह वृक्ष को लातें मार रहा था । यह देखकर वे सज्जन हंसने लगे और कह पडे, ‘‘महाराज, क्या मूर्ख मनुष्य है ! स्वयं ही वृक्ष को पकडा हुआ है और उपर से कह रहा है की ‘मुझे छोड दो, मुझे छोड दो’ । मुझे तो यह पागल ही लगता है ।’’
विवेकानंद हंसे और कहने लगे, ‘‘क्या आपको नहीं लगता की आपकी स्थिती भी ऐसी ही है ? दुर्गुणों को आपने ही पकडकर रखा है और वे छूट नहीं रहे है इसलिए चिल्ला रहे है ।’’ उनकी यह बात सुनकर वे सज्जन थोडे से सहम गए । कुछ आगे बढने के पश्चात उन्हें एक माली पौधों को खाद डालते हुए दिखाई दिया । खाद को दुर्गंध आ रही थी । सज्जन ने नाक को रूमाल लगा दी । विवेकानंदजी हंसे । कुछ पग आगे बढे । अनेक विध पौधों पर विभिन्न प्रकारके पुष्प खिले थे । उनकी सुगंध सर्व ओर फैल रही थी । वे सज्जन मन भरकर सुगंध लेने लगे । उनका मन प्रफुल्लित हुआ । विवेकानंद अभी तक स्मितहास्य कर रहे थे । वे सज्जन अचरज में पड गए । उनके मनमें विचार आया, ‘ये पागल तो नहीं है न ? मैं कितनी बडी समस्या लेकर इनके पास आया हूं और ये तो हंस रहे है । मेरा उपहास तो नहीं उडा रहे है न ?’ अंत में उन्होंने विवेकानंदजीसे पूछा, ‘‘महाराज, आप क्यो हंस रहे है ? क्या मुझसे कुछ चूक हुई है ?’’ स्वामी विवेकानंदने बताया, ‘‘ये पौधे, फूल मानव की दृष्टि से कितने अप्रगत और पिछडे हुए है; परंतु वे प्राप्त खाद की दुर्गंध को सुगंध में परिवर्तित करते हैं! वे सभी को सुगंध बांटते है, अपने लिए कुछ नहीं रखते । परंतु इतनी प्रगल्भ बुद्धिका विकसित मनुष्य मात्र अपने दुर्गुणों को सद्गुणों में परिवर्तित नहीं कर पाता । ये फूल किसी भी परिस्थिति में हिल-डुलते हैं, हंसते हैं । उन्हें तोडने पर भी वह सुगंध ही देते है । सुगंध बांटना यह गुणधर्म वे कभी नहीं छोडते । परंतु मनुष्य जरा से हवा के झोके से दोलायमान होता है ।’’ यह सुनकर वे सज्जन सहम गए । उन्हें अपनी चूक समझ में आई । वे संतुष्ट होकर वहां से गए यदि आप भी आपके दुर्गुण नष्ट करना चाहते हो, तो जिस प्रकार उस मनुष्य को स्वयं ही वृक्षको छोडना आवश्यक था, उस प्रकार हमें भी अपने दुर्गुण स्वयं ही छोडने आवश्यक हैं । भगवानजी के नाम स्मरण से हमारी प्रवृत्ति में अंतरबाह्य परिवर्तन होता है । विवेकानंदजी के दिखाये अनुसार हम भी उन सुगंध देने वाले फूलों की भांति अपने दुर्गुणों को सद्गुणों में परिवर्तित कर सकते है । स्वामी विवेकानंद ने स्वयं साधना की थी । इसीलिए वे उस सज्जनकी व्यथा को दूर कर सके । अपनी प्रखर साधना के बलपर ही मुरझे हुए समाज को मार्ग दिखा सके । आज भी कन्याकुमारी में विराजित स्वामी विवेकानंद जी का स्मारक उनके तेजमयी व्यक्तित्व की स्मरण करवाता है
भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति से ठीक ५० वर्ष पूर्व मद्रास के युवाओं के सम्मूख दिये व्याख्यान में स्वामीजी ने यह विश्वास व्यक्त किया था। स्वामी विवेकानन्द स्वयं युवा ही थे। उनका सारा जीवन व संदेश यौवन का आदर्श था। उन्होंने भारतीय संस्कृति में युवावस्था के आदर्श को हमारे सम्मूख प्रस्तुत किया। केवल ३९ वर्ष ५ माह व २२ दिन की अल्पआयु में ऐसा पराक्रम किया कि सारा विश्व स्तम्भित रहा। अपने जीवन, प्रेरणा, विचार, साहित्य तथा कर्तृत्व से स्वामीजी ने तरुणाई को परिभाषित व प्रेरित किया।
ReplyDeleteस्वामीजी के जीवन ने अनेक महापéरूषों के जीवन को प्रभावित किया। आज भी उनका साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में भाव जगाता है। किसी ने ठीक ही कहा है - यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो सहज ही कर्ममें लग जायेगा। अपने ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। यह स्वामी विवेकानन्द के सजीव संदेश का प्रभाव है। जो भी उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में आया उसका जीवन ही बदल गया। वर्तमान समय में युवाओं के सम्मूख अनेक चुनौतियाँ हैं। ऐसे में स्वामीजी का संदेश उनके लिये अत्यन्त व्यावहारिक मार्गÎर्शन प्रदान करता है।
भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति से ठीक ५० वर्ष पूर्व मद्रास के युवाओं के सम्मूख दिये व्याख्यान में स्वामीजी ने यह विश्वास व्यक्त किया था। स्वामी विवेकानन्द स्वयं युवा ही थे। उनका सारा जीवन व संदेश यौवन का आदर्श था। उन्होंने भारतीय संस्कृति में युवावस्था के आदर्श को हमारे सम्मूख प्रस्तुत किया। केवल ३९ वर्ष ५ माह व २२ दिन की अल्पआयु में ऐसा पराक्रम किया कि सारा विश्व स्तम्भित रहा। अपने जीवन, प्रेरणा, विचार, साहित्य तथा कर्तृत्व से स्वामीजी ने तरुणाई को परिभाषित व प्रेरित किया।
ReplyDeleteस्वामीजी के जीवन ने अनेक महापéरूषों के जीवन को प्रभावित किया। आज भी उनका साहित्य किसी अग्निमन्त्र की भाँति पढ़नेवाले के मन में भाव जगाता है। किसी ने ठीक ही कहा है - यदि आप स्वामीजी की पुस्तक को लेटकर पढ़ोगे तो सहज ही उठकर बैठ जाओगे। बैठकर पढ़ोगे तो उठ खड़े हो जाओगे और जो खड़े होकर पढ़ेगा वो सहज ही कर्ममें लग जायेगा। अपने ध्येयमार्ग पर चल पड़ेगा। यह स्वामी विवेकानन्द के सजीव संदेश का प्रभाव है। जो भी उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में आया उसका जीवन ही बदल गया। वर्तमान समय में युवाओं के सम्मूख अनेक चुनौतियाँ हैं। ऐसे में स्वामीजी का संदेश उनके लिये अत्यन्त व्यावहारिक मार्गÎर्शन प्रदान करता है।